शनिवार, 14 मई 2022

ये काफ़ी कितना होता है ?

क्या बारिश की बूंदे काफी हैं गागर को भरने के लिए ?

क्या तिनके का सहारा काफी है सागर को तरने के लिए ?

ये काफी कितना होता है!

मन कचोट हृदय रोता है | 


नंगी हथेली एक सिक्के को छूने भर को तरसती है | 

ना काफी उसके बटुए में समायी वो अमीरों की बस्ती है | 

ये काफी कितना होता है !

जो आँसुओं से हथेलियाँ धोता है | 


ऊँचे उसके ख्वाब मगर मजबूर है वो ना जाने क्यों | 

धूल उड़ाता ज़मीं पर दूर उसका आसमाँ है ये माने क्यों | 

ये काफी कितना होता है !

जो बेवजह ख़ुद को खोता है | 


दूसरों की नज़र से देख अगर तो तेरा काफी पूरा है | 

वो दूसरा बैठा सिर झुकाए अपने हालात से अधूरा है | 

ये काफी कितना होता है !

जो चैन से रातों को सोता है | 




                                                                           

                                                      -  नेहा 







रविवार, 17 अक्तूबर 2021

मैं..



मैं को जानू मैं कैसे ,
मिले कई मुझे मुझ जैसे | 
मन की मेरी मान लू मैं तो ,
जान लू खुद को मैं वैसे | 

है कौन नया हुआ कौन पुराना ,
असली नकली का भेद बताना | 
मारे ताली गाये गाना 
हँसता  खुद पे अंधा  जमाना | 

मन यहाँ अभी कल कहाँ किधर है ,
समय कि बड़ी कसी कमर है | 
दौड़ समय के साथ हांफती ,
उम्मीद अधूरी अजर अमर है | 

लो समझ गया सब खेल निराले ,
चमक दमक पर मन के काले | 
रहस्य यही बस सच बोल दे तू जो ,
दिल सोना और सब दिलवाले | 

पलट कर पन्ना नई कहानी से जब तू कुछ लिख जायेगा ,
मुड़ कर बचपन ऊंगली थामे साथ तेरे फिर आएगा | 
देख कर मेरे मन की काया आईना भी मुस्कायेगा ,
पढ़कर अपनी नयी कहानी तू खुद को जान जायेगा | 



सोमवार, 25 मई 2020

मेरे दिल~

जब भी झाँका ख़ुद के अंदर,
मेरा सच मुझसे कहता है,
तू कोशिशे लाख कर ले मेरे दिल ,
तेरे अंदर एक नासमझ ,नादान कोई रहता है |

हर किताबी सच पढ़ चूका वो,
कहानियाँ भी उसको मालूम थी कई सारी,
समझने लगा था खुद को घना पेड़ ,
पर रह गया बेचारा फूलों कि क्यारी |

कहता कैसे अपने सच को वो बेज़ुबान ,
मुठ्ठी में बंद किए उसको वो तड़पता रहा ,
पर न छुपा सका उससे हक़ीक़त अपनी ,
उस दिल का दिल था वो जो अंदर उसके धड़कता रहा|

पानी सा था रंग-रूप उसका भी ,
गहराईयाँ भी था - उसकी बेज़ुबान आँखों में ,
शायद वो दिल समझ जायेगा उस दिल को ,
जो था वक़्त बिताया मोहब्बत कि सलाखों में  |

साथ सांसे जो लेने लगे थे दोनों ,
उस दिल को अपने दिल की हरकतों का पता था ,
हाथ थामे चलें दोनों जब एक मंज़िल को पाने ,
रास्तों पे पसरा कोहरा कदम - कदम छटा था |

अनसुनी आवाज़ उसकी पहचान लेगा वो ,
कांपते होंठो से एक ज़िक्र भर काफी रहा ,
उस दिल की ख्वाहिशे भी बड़ी बचकानी रही ,
अपने दिल की अनकही फ़िक्र उसको नमाफी रहा |

आंखे मूंदे जब याद करते थे एकदूसरे को ,
मन के आईने में जो अक्स नज़र आते थे ,
उस दिल के अंदर का दिल ही तो है वो ,
ख़ुदी को खुदा से वो दिल अलग नहीं पाते थे |


                                                                                      
                                                                                                     

                                                                                                                                    -स्नेहिल

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

बोली धरती !

मैं धरती नवजीवित रहती - पर तेरा मोह सृजन का छूटा ना,
मिथ्या रुपी जाल था पसरा , अहंकारी दर्पण टूटा ना |

अनभिज्ञ रही अवसाद से अपने , मैं जीती सिसक सिसक ,
कुंठित रही संतान से अपने , मैं रोती बिलख बिलख |

निर्भर नहीं मैं किसी पर , तू पला जहा - वो तेरी जननी है ,
धिक्कारता स्वयं को , जो है काल पसरा , तेरी करनी है |

है विष्तृत वृक्ष वहीं , फैलाये आंचल , आसमान की छाँव में ,
जिसने बदला सम्पूर्ण जगत को , रुका अश्तित्व के पड़ाव में |

कलकल बहती नदियाँ आज भी सुरीले सरगम सुनाती है ,
बैरी बैठे सुनसान किनारे , गुनगुनाते अधीर कर्णो को  बुलाती है| 

कर्म चक्र की बेड़ी बांधे धर्मग्रंथों का तू अनुयायी ठहरा ,
क्यों सहम गया  परिणाम को देखे , ये और कुछ नहीं - बस तेरा चेहरा |

है बदल चूका युग , बदला मौसम , बदला विश्व मुखमण्डल है ,
मनुष्य भयावह रूप दिखाता , अब खुद से करता दंगल है |

क्यों सिमट गए सब घरों के अंदर , है खड़ा बुलंद आकाश वहीं ,
कैसा पोरस , कौन सिकंदर , जा कर नए घर की तलाश कहीं |

चट्टानों सा धैर्य लिए मेरे कपाल पर एक सत्य लिखा था ,
"तू शरणागत है इस प्रकृति का" क्या तेरे बंद चक्छुयो को दिखा था?

बोली धरती ! संताप की गगरी से निकला विष तो तुझे पीना पड़ेगा ,
समय रुपी झरने से जब तक न निकले अमृत तुझे जीना पड़ेगा |


                                                                                
                
                                                                                  - स्नेहिल

रविवार, 16 सितंबर 2018

क्यों।

क्यों कल की फिकर सताए है, जो आज कहा सब पाए है।
क्यों मोह का बंधन टूटा है , सब ओर जो पसरा झूठा है।

क्यों सांझ पंछी घर को जाए है, किरणे जो राह दिखाए है।
क्यों तू मुस्काता हर पीड़ में भी, जो पीर को पाता हर भीड़ में भी।   
                                                                  
क्यों दुख़ के बादल गरज रहे, जो बाद में पुष्पित बरस रहे।
क्यों पोधा बाहर आकर भी, सब समझ गया ना चाह कर भी।

क्यों नदियां कल कल बहती है,जो दरिया में जाकर मिलती है।
क्यों शोर मचाता दौड़ रहा , वो मौन सन्नाटा बोल रहा।

क्यों हमसे हाथ मिलाए है, जो गैरो की बारात में आए है।
क्यों सदियां सौगातें लायी है , जो हमसे मिलने आयी है। 

क्यों होता मन्न में हौसला , जब बात अपनों की आती है।
क्यों कांटो पे भी सो लेते है, जब बात सपनों की आती है।

शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

रास्ता |

मैं अकेला ही चलूंगा , मिल जाएगी मंज़िल मुझे
रास्तों के पत्थरों से टूटना नहीं मुझे 
हर कदम पे एक कदम हो हौसला हासिल मुझे 
धुँधले उम्मीदों की कमान से छुटना नहीं मुझे || 

पैदल चलूँगा कंकरो पे धुप भी सहूँगा मैं ,
वो रास्ता लम्बा सही उसपर चलता रहूँगा मैं 
सकले बनाती दुनिया मुझे डरा रही हर घड़ी 
तू आज़मा ले मेरी हिम्मत ये सदा कहूँगा मैं || 


बुधवार, 12 जुलाई 2017

मेरे बेटे !

जो देख  पाता अपना प्रतिबिंब तेरे आईने  में , मेरे बेटे ,
भ्रम के जाल से खींच लाता तुझे , तेरे सपनो को समेटे।

मैं पिता बन कर रह गया , काश तेरा दोस्त बन पाता ,
हुई गलती मुझसे , काश तुझे अपना सत्य बता पता।

मैं भी तड़पता था उस परिंदे की तरह , जिसकी उड़ान भरने को तु क़ाबिल था ,
मेरे भी मन मस्तिष्क में , तेरी ऊचाईयों का पैमाना मुझे हासिल था।

तेरी खुशियाँ ही मेरी ज़िन्दगी , मेरे अस्तित्वा कि जननी थी ,
तेरी सपनो की  अंजलि से मुझे मेरी आकांक्षाओं की पोखर भरनी थी।

मैं खड़ा पाता हूँ ख़ुद को निरंतर उसी छण के दो राहो पर ,
जहाँ अनायास ही मुझे तु छोड़ गया निरुत्तर , एक प्रश्न कि सीमाओं पर।

हूँ असमर्थ , अब ढूंढता हूँ तुझे प्रतिदिन उन्हीं छणो में ,
जीता हूँ तुझे , तेरी पहचान को अपनी भंगिमाओं के कणों में।

मैं निर्लिप्त अपनी व्यथा में , तेरी प्रतीक्षा करता रहूँगा ,
अपने हृदय की तान पे , तेरी अधूरी साँसे भरता रहूँगा।

                                                                   
                                                                                                                            - स्नेहिल


ये काफ़ी कितना होता है ?

क्या बारिश की बूंदे काफी हैं गागर को भरने के लिए ? क्या तिनके का सहारा काफी है सागर को तरने के लिए ? ये काफी कितना होता है! मन कचोट हृदय रोत...